Wednesday, January 15, 2014

आज की राजनीति की नैतिकता और सैफई



उत्तर प्रदेश के सैफई गांव में हर साल सांस्कृतिक जलसा होता है. इस बार भी जगरमगर और धूम रही, सलमान खान और माधुरी दीक्षित ने डांस किया. मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों की तकलीफ की ओर पीठ कर सैफई का उल्लास क्या उचित था?
सैफई मुलायम सिंह का पैतृक गांव है. यादव बंधु भ्राता तात सखा ग्रामवासी सब सैफई महोत्सव में इकट्ठा होते हैं. रंग रोशनी नेता अभिनेता डांस एक्टिंग आनाजाना शोरशराबा नौटंकी धूल धमाका, सब होता है. गांव जैसे जश्न में घुल जाता है. लेकिन अब सैफई पर सीएम को सफाई देनी पड़ रही है. वो मीडिया पर भड़के हुए हैं. कुछ मुद्दों पर जायज भी भड़के. मीडिया ने अपना जो हाल बनाया है उसमें सत्ता राजनीति उसे अब जरा बढ़चढ़ कर ही आंख दिखाने लगी है.
अखिलेश ने सैफई निंदा को गरीबों और समाजवाद की निंदा से जोड़ा. आशय ये था कि ये अंग्रेजीदां लोग देहातियों के मनोरंजन पर नाक भौं सिकोड़ते हैं. ये सिर्फ मनोरंजन तो नहीं था, मेला था, संस्कृति का प्रसार था. रोजगार का साधन था, युवाओं में जोश था, आदि आदि. सही है. सैफई महोत्सव सही है, राग रंग बनता है. जनता को भी मनोरंजन चाहिए. और सोचिए उनके लिए सपने से कम नहीं, सलमान और माधुरी जैसे सितारों का ठीक उनके सामने मंच पर नाचना गाना.
लेकिन...
लेकिनका एक बड़ा सा पेड़ लहराता हुआ सैफई के समाजवाद के आड़े आ जाता है. ये मुजफ्फरनगर के सौहार्द का कटा हुआ पेड़ है. सैफई में जब मनोरंजन फूटता था तो कुछ सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में दम घुटता था. वहां लोग सितारों के नाच में लहराते थे, इधर बर्छियों की तरह चुभती ठंड में शरीर और तंबुओं से लिपटी चिंदियां फड़फड़ाती थीं.
ये एक ही सूबे के दो अलग अलग दृश्य थे. एक ही समाज की दो हलचलें, एक ही देश के दो यथार्थ. आपको देश में हर जगह एक सैफई मिलेगा, एक मुजफ्फरनगर. मुजफ्फरनगर यानी शर्म और यातना. और सैफई यानी उस वेदना के पड़ोस में एक निर्विकार मौज. सैफई 2014 में सामाजिक मूल्यहीनता का एक रिफ्लेक्शन है. लेकिन अकेला यही नहीं. त्रासदियों पर आंखें फेरने और जीवन के समारोहीकरण की ये कोई अकेली या पहली मिसाल नहीं. आखिरी क्यों कर होगी. ये देश उदास होना भूल गया है.
मुजफ्फरनगर कैंप में ठंड से जूझते परिवार
राजनीति को बॉलीवुड की मसाला फिल्म की तरह पेश करने का दौर चला है. सूबे की सरकार के प्रमुख और कई और नुमांइदे सैफई में डूबे लेकिन एक राज्य की समस्त जनता की फिक्र करने वाली सरकार के लिए क्या ये अनिवार्य डूब थी. तड़पते और कांपते मुजफ्फरनगर के पास धूम और मस्ती का अलाव क्यों जलाया. इस गर्मी को अपने पर खर्च क्यों किया.
अच्छा, थोड़ी देर के लिए मान लें कि अखिलेश एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला कर लेते, साहस दिखाते. अपने पिता को भी आगे बढ़कर कहते, देखिए इस बार सैफई नहीं करते. वहां कुछ और दूसरे ढंग का कर देते हैं. मुजफ्फरनगर की याद में, उस सघन संकट के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए कोई शिविर कर देते हैं. कुछ अलग कर देते हैं. ऐसा कि दुनिया देखती रह जाए और सबक ले सके. नाम होता. क्या अपनी जनता पर अपने कार्यकर्ता पर और अपने गांव देहात पर यादवों का इतना बस न था. क्या उन्हें कनविन्स न किया जा सकता था.
काश, ऐसा होता
क्या ऐसा हो सकता था. ये हमारी खुशफहमी ही होगी शायद. चमक की खुशफहमियां तो किसी और ही चीज के लिए उकसाती हैं. उनका मोह जबरदस्त है. धंसा तो धंसा रह गया. इस मोह से बाहर आने की ताब तो आप भी मानेंगे कि या तो बुद्ध में ही रही होगी, या गांधी में.
ऐसा क्यों है कि बुद्ध की इतनी सदियों बाद और गांधी के इतने बरसों बाद आज के भारत में, त्याग समर्पण अच्छाई और नैतिकता के बारे में हवाला देने के लिए हमें इन दो महान आत्माओं के पास ही जाना पड़ता है. और इसी हवाले से आज के नेताओं या सार्वजनिक जीवन की शख्सियतों से आप बहुत बड़ी तो नहीं, छोटी छोटी अपेक्षाएं रखते हैं. अखिलेश और उनके पिता से भी यही अपेक्षा थी. उनके उस दल से भी यही अपेक्षा थी जो विदेश के स्टडी टूरपर निकला.

ये कैसी सियासत
यूपी के मामले में सच्ची राजनीति तो यही कहती थी कि सैफई स्थगित करो. विदेश यात्रा स्थगित करो. मुजफ्फरनगर जाओ उसे समझो और संवारो. जैसे गुजरात के सीएम के मामले में राजनीति यही कहती है कि ब्लॉग लिखकर अपने दुख के घड़े का वजन और आकार न बताओ, जो 2002 में हुआ उसके लिए पहले माफी तो मांगो. सामने आओ. लगता है चाहे राजनीति हो या उससे जुड़ी समाज या संस्कृति, इन सत्ताओं का ये दौर गलतियां स्वीकारने या सुधारने का नहीं, उन्हें किसी न किसी रूप में जायज ठहराने का या उन पर खामोश रह जाने का दौर है. सत्ता राजनीति और उसके तमाम किरदार अपनी कौम की फिक्र से दूर रहते हैं. फिर वे नेता हों या अभिनेता या कलाकार या अफसर या खिलाड़ी.
सच्चे राजनैतिक और सामाजिक  मूल्यों की शिनाख्त होती है विनम्रता, सहानुभूति, सद्भावना और साहस में. लेकिन हम पाते हैं, संस्कृति में अब आत्मा के निरीक्षण की कार्रवाई ही रद्द की जा चुकी है. मानो उसका वहां क्या काम.

Saturday, January 11, 2014

आज की राजनीति



राजनीति कोई जीवन का ऐसा अलग हिस्सा नहीं है, जो धर्म से भिन्न हो, साहित्य से भिन्न हो, कला से भिन्न हो। हमने जीवन को खंडों में तोड़ा है सिर्फ सुविधा के लिए। जीवन इकट्ठा है। तो राजनीति अकेली राजनीति ही नहीं है, उसमें जीवन के सब पहलू और सब धाराएँ जुड़ी हैं। और जो आज का है, वह भी सिर्फ आज का नहीं है, सारे कल उसमें समाविष्ट हैं। यह प्राथमिक रूप से खयाल में हो तो बातें समझने में सुविधा होगी ।

 
भारत की आज की राजनीति में जो उलझाव है, उसका गहरा संबंध हमारी अतीत की समस्त राजनीतिक दृष्टि से जुड़ा है।
जैसे, भारत का पूरा अतीत इतिहास और भारत का पूरा चिंतन राजनीति के प्रति वैराग सिखाता है। अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, यह भारत की शिक्षा रही है। और जिस देश का यह खयाल हो कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, अगर उसकी राजधानियों में सब बुरे आदमी इकट्ठे हो जायें, तो आश्चर्य नहीं है। जब हम ऐसा मानते हैं कि अच्छे आदमी का राजनीति में जाना बुरा है, तो बुरे आदमी का राजनीति में जाना अच्छा हो जाता है। वह उसका दूसरा पहलू है।

हिंदुस्तान की सारी राजनीति धीरे-धीरे बुरे आदमी के हाथ में चली गयी है; जा रही है, चली जा रही। आज जिनके बीच संघर्ष नहीं है, वह अच्छे और बुरे आदमी के बीच संघर्ष है। यह  ठीक से समझ लेना ज़रूरी है। उस संघर्ष में कोई भी जीते, उससे हिंदुस्तान का बहुत भला नहीं होनेवाला है। कौन जीतता है, यह बिलकुल गौण बात है। दिल्ली में कौन ताकत में आ जाता है, यह बिलकुल दो कौड़ी की बात है; क्योंकि संघर्ष बुरे आदमियों के गिरोह के बीच है।
हिंदुस्तान का अच्छा आदमी राजनीति से दूर खड़े होने की पुरानी आदत से मजबूर है। वह दूर ही खड़ा हुआ है। लेकिन इसके पीछे हमारे पूरे अतीत की धारणा है। हमारी मान्यता यह रही है कि अच्छे आदमी को राजनीति से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। बर्ट्रेड रसल ने कहीं लिखा है, एक छोटा-सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षकउसका हैडिंग मुझे पसंद पड़ा। हैडिंग है, ‘दी हार्म, दैट गुड मैन डू’—नुकसान, जो अच्छे आदमी पहुँचाते हैं।

अच्छे आदमी सबसे बड़ा नुकसान यह पहुँचाते हैं कि बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर देते हैं। इससे बड़ा नुकसान अच्छा आदमी और कोई पहुंचा भी नहीं सकता। हिंदुस्तान में सब अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं।एस्केपिस्टरहे हैं। भागनेवाले रहे हैं. हिंदुस्तान ने उनको ही आदर दिया है, जो भाग जायें। हिंदुस्तान उनको आदर नहीं देता, जो जीवन की सघनता में खड़े हैं, जो संघर्ष करें, जीवन को बदलने की कोशिश करें।

कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्ध ने राज्य न छोड़ा होता, तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ है। आज तय करना भी मुश्किल है। लेकिन यह परंपरा है हमारी, कि अच्छा आदमी हट जाये। लेकिन हम कभी नहीं सोचते, कि अच्छा आदमी हटेगा, तो जगह खाली तो नहीं रहती, ‘वैक्यूमतो रहता नहीं।
अच्छा हटता है, बुरा उसकी जगह भर देता है। बुरे आदमी भारत की राजनीति में तीव्र संलग्नता से उत्सुक हैं। कुछ अच्छे आदमी भारत की आजादी के आंदोलन में उत्सुक हुए थे। वे राजनीति में उत्सुक नहीं थे। वे आजादी में उत्सुक थे। आजादी आ गयी। कुछ अच्छे आदमी अलग हो गये, कुछ अच्छे आदमी समाप्त हो गये, कुछ अच्छे आदमियों को अलग हो जाना पड़ा, कुछ अच्छे आदमियों ने सोचा, कि अब बात खत्म हो गयी।

खुद गांधी जैसे भले आदमी ने सोचा कि अब क्रांग्रेस का काम पूरा हो गया है, अब कांग्रेस को विदा हो जाना चाहिए। अगर गांधीजी की बात मान ली गई होती, तो मुल्क इतने बड़े गड्ढे में पहुंचता, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। बात नहीं मानी गयी, तो भी मु्ल्क गढ्ढे में पहुँचा है, लेकिन उतने बड़े गड्ढे में नहीं, जितना मानकर पहुंच जाता। फिर भी गांधीजी के पीछे अच्छे लोगों की जो जमात थी, विनोबा और लोगों की, सब दूर हट गये। वह पुरानी भारतीय धारा फिर उनके मन को पकड़ गयी, कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं होना चाहिए।

खुद गांधीजी ने जीवन भर बड़ी हिम्मत से, बड़ी कुशलता से भारत की आजादी का संघर्ष किया। उसे सफलता तक पहुंचाया। लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आयी, गांधीजी हट गये। वह भारत का पुराना अच्छा आदमी फिर मजबूत हो गया। गांधी ने अपने हाथ में सत्ता नहीं ली, यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। जिसे हम हजारों साल तक, जिसका नुकसान हमें भुगतना पड़ेगा। गांधी सत्ता आते ही हट गये। सत्ता दूसरे लोगों के हाथ में गयी। जिनके हाथ में सत्ता गयी, वे गांधी जैसे लोग नहीं थे। गांधी से कुछ संभावना हो सकती थी कि भारत की राजनीति में अच्छा आदमी उत्सुक होता। गांधी के हट जाने से वह संभावना भी समाप्त हो गयी।

फिर सत्ता के आते ही एक दौड़ शुरू हुई। बुरे आदमी की सबसे बड़ी दौड़ क्या है ? बुरा आदमी चाहता क्या है ? बुरे आदमी की गहरी से गहरी आकांक्षा अहंकार की तृप्ति है इगोकी तृप्ति है। बुरा आदमी चाहता है, उसका अहंकार तृप्त हो और क्यों बुरा आदमी चाहता है कि उसका अहंकार तृप्त हो ? क्योंकि बुरे आदमी के पीछे एक इनफीरियारिटी काम्प्लेक्स’, एक हीनता की ग्रंथि काम करती रहती है। जितना आगदमी बुरा होता है, उतनी ही हीनता की ग्रंथि ज्यादा होती है। और ध्यान रहे, हीनता की ग्रंथि जिसके भीतर हो, वह पदों के प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। सत्ता के प्रति, ‘पावरके प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। भीतर की हीनता को वह बाहर के पद से पूरा करना चाहता है।

बुरे आदमी को मैं, शराब पीता हो, इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं। शराब न पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं। बुरा आदमी इसलिए नहीं कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला, अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों से टिका रहनेवाला भी बुरा हो सकता है। मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं, जिसकी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर इनफीरियारिटीका कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा। और किसी को भी हटा देने के लिए, कोई भी साधन उसे सही मालूम पड़ेंगे।

हिंदुस्तान में अच्छा आदमीअच्छा आदमी वही है, जो नइनफीरियारिटीसे पीड़ित है और नसुपीरियरिटीसे पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है, ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है। आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है, और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे कोई अड़चन, कोई तकलीफ नहीं है। जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाये तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाये, तो राजनीति केवल पावर पालिटिक्स’, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड हो जाती है। और शराब से कोई आदमी इतना बेहोश कभी नहीं हुआ, जितना आदमी सत्ता से और पावरसे बेहोश हो सकता है। और जब बेहोश लोग इकट्ठे हो जायें सब तरफ से, तो सारे मुल्क की नैया डगमगा जाये इसमें कुछ हैरानी नहीं है ?

यह ऐसे ही हैजैसे किसी जहाज के सभी मल्लाह शराब पी लें, और आपस में लड़ने लगें प्रधान होने को ! और जहाज उपेक्षित हो जाये, डूबे या मरे, इससे कोई संबंध न रह जाये, वैसी हालत भारत की है।
राजधानी भारत के सारे के सारे मदांध, जिन्हें सत्ता के सिवाय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा है, वे सारे अंधे लोग इकट्ठे हो गये हैं। और उनकी जो शतरंज चल रही ही, उस पर पूरा मुल्क दांव पर लगा हुआ है। पूरे मुल्क से उनको कोई प्रयोजन नहीं है, कोई संबंध नहीं है। भाषण में वे बातें करते हैं, क्योंकि बातें करनी जरूरी हैं। प्रयोजन बताना पड़ता है। लेकिन पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। पीछे एक ही प्रयोजन है भारत के राजनीतिज्ञ के मन में, कि मैं सत्ता में कैसे पहुंच जाऊं ? मैं कैसे मालिक हो जाऊं ? मैं कैसे नंबर एक हो जाऊं ? यह दौड़ इतनी भारी है, और यह दौड़ इतनी अंधी है कि इस दौड़ के अंधे और भारी और खतरनाक होने का बुनियादी कारण यह है कि भारत की पूरी परंपरा अच्छे आदमी को राजनीति से दूर करती रही है।