Friday, January 23, 2015

महानायक

सुभाष चन्द्र बोस उन महामानवों में से एक थे जिन्हें तीव्र बुद्धि, भावनात्मक उर्जा, प्रखर चिंतनक्षमता जन्म से प्राप्त थी। और पराधीन भारतमाता को स्वतंत्र करने के भव्य स्वप्न से जिनके व्यक्तित्व का अणु-अणु उत्तेजित रहता था। उन्होंने पश्चिमी ज्ञान और विद्या को आत्मसात किया था, साथ ही भारत की उर्जस्वी आध्यात्मिक परंपरा, जो रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद से छनकर आयी थी, उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल स्त्रोत थी। सुभाष चन्द्र बोस का ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी जबरदस्त कशिश ने हिटलर से लेकर जापान के प्रधानमंत्री तोजो तक को प्रभावित किया था और जिसके भय से चर्चिल जैसे नेताओं की नींद हराम कर दी थी।
भाग्य और प्रकृति प्रायः विश्व के समस्त महापुरुषों की सत्वपरिक्षा लेते रहे हैं। नेताजी के जीवन में भी भाग्य और प्रकृति निरंतर अडा-तिरछा तांडव करते रहे। धराशायी होते गिरिशिखर पर भी पाँव टिकाये रखने वाले इस पुरुषसिंह ने कभी अपना धैर्य और गाम्भीर्य नहीं छोड़ा। पंथनिरपेक्ष, सुदृढ़, सशक्त, श्रेष्ठ और सुसंस्कृत भारत के निर्माण का स्वप्न साकार करने के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया।

Wednesday, December 24, 2014

भारत - रत्न




मध्यम मार्ग के शिखर पुरुष – अटल बिहारी बाजपेयी 

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता में ईश्वर से प्रार्थना की है कि वह उन्हें इतनी ऊंचाई पर न पहुंचाए जिससे कि वे सबसे दूर हो जाएं। प्रार्थना के विपरीत उन्हें एक सर्वस्वीकार्य राष्ट्र पुरुष जैसी ऊंचाई मिली। उनका यह सोच निराधार साबित हुई और वह इतनी ऊंचाई पाकर भी कहीं भारतीय जनमानस से दूर नहीं हुए। आधी शताब्दी से भी अधिक के सार्वजनिक जीवन के किसी कालखंड में वह भारतीय लोकजीवन से अलग नहीं हुए। जनमानस को समझने का शायद उन्हें कभी अलग से प्रयास नहीं करना पड़ा। उनकी यही अद्भुत क्षमता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारतीय समाज से उनका संवाद सहज और स्वतः स्फूर्त था। ऐसा उनका निजी पृष्ठभूमि के कारण भी था। जिसने बाद में उनके सार्वजनिक जीवन में भी योगदान दिया। सांगठनिक और राजनीतिक कार्यों से लगातार भ्रमण करते रहने में उनका बड़ा समय निकला। कभी पदयात्रा, कभी साइकिल यात्रा तो कभी मोटर साइकिल यात्रा और फिर दूसरे साधन से जुड़ते दिन बदलते रहे, स्थान बदलते रहे, मौसम और वर्ष बीते। यहां तक कि दशक बीते। लेकिन दौरों, जनसम्पर्क और जनसभाओं का क्रम चलता रहा।चरैवेति-चरैवेतिकी इसी जीवनचर्या ने उन्हें भारतीय जनमानस से एकाकार कर दिया। यह कहना चाहिए कि उन्हें भारतीय समाज को अलग से समझने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह उनके सोच व स्वाभाव में समाहित हो गया।
उनके द्वारा पुष्पित-पल्लवित पौधा अब विशाल बट-वृक्ष बन गया है। यह स्वाभाविक है कि संघर्ष की लंबी अग्नि परीक्षा को भुला दिया जाए। आज के अटल जी इसी संघर्ष की देन हैं। यह भी इनकी अद्वितीय पहचान है।
भारतीय समाज के मौलिक संस्कार को अटल जी ने बहुत सटीक तरीके से समझा और उसे अपने जीवन में उतारा भी। राजनीति में हिंसक टकरावों के दुर्भाग्यपूर्ण दौर भी आए। लेकिन भारतीय समाज की समन्वयवादी शांति प्रिय सोच पर अटल जी की आधारभूत आस्था हमेशा अटल ही रही। उन्होंने अराजकता के ऐसे सभी निराशाजनक प्रसंगों में दृढ़ता से कहा कि भारतीय समाज इस हिंसक, विभाजक राजनीति को लंबे समय तक स्वीकार नहीं करेगा। अटल जी मन से मानते रहे कि राजनीति से विग्रह, विवाद और विभाजन को अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन अंततः समन्वय, संवाद और सहमति से समाधान संभव होगा।
इस महापुरुष, मनीषी, महानायक, महादेशभक्त अटल बिहारी बाजपेयी को मेरा शत-शत नमन ।



पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय
 असाधारण महापुरुष पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय का जन्म भारत के उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रयाग में    २५ दिसम्बर सन १८६१ को एक साधारण परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था । चूँकि ये लोग मालवा के मूल निवासी थे अतः मालवीय कहलाए ।
        अध्यापकी के दौरान ही मालवीयजी के हृदय में समाज-सेवा की लालसा जग गई । समाज-सेवा में लगे होने के साथ ही साथ १८८५ में ये कांग्रेस में शामिल हो गए । इनके जुझारुपन व्यक्तित्व और जोरदार भाषण से लोग प्रभावित होने लगे । समाज-सेवा और राजनीति के साथ ही साथ मालवीयजी हिन्दुस्तान पत्र का संपादन भी करने लगे । बाद में मालवीयजी ने प्रयाग से ही अभ्युदय नामक एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला । पत्रकारिता के प्रभाव और महत्व को समझते हुए मालवीयजी ने अपने कुछ सहयोगियों की सहायता से १९०९ में एक अंग्रेजी दैनिक-पत्र लीडर भी निकालना शुरु किया । इसी दौरान इन्होंने एल.एल.बी. भी कर ली और वकालत भी शुरु कर दी । वकालत के क्षेत्र में मालवीयजी की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फाँसी से बचा लेने की थी ।
    राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए मालवीयजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की । विश्वविद्यालय के निर्माण हेतु धन जुटाने के लिए वे भारत के कोने-कोने में गए । अपने आप को भारत का भिखारी माननेवाले इस महर्षि की मेहनत रंग लाई और ४ फरवरी १९१६ को वसंतपंचमी के दिन वाइसराय लार्ड हार्डिंग्ज के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई । आज भी यह विश्वविद्यालय शिक्षा का एक विख्यात केंद्र है और तभी से पूरे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला रहा है ।
    मालवीयजी देशप्रेम, सच्चाई और त्याग की प्रतिमूर्ति थे । एक मनीषी थे और थे माँ भारती के एक सच्चे सपूत । इस मनीषी को सदा दूसरों की चिंता सताती थी अतः दूसरों के विकास के लिए, लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए ये सदा तत्पर रहते थे । इनका हृदय बड़ा कोमल और स्वच्छ था । दूसरे का कष्ट इनको व्यथित कर देता था । सन १९३४ में दरभंगा में भूकम्प पीड़ितों की सेवा और सहायता इन्होंने जी-जान से की थी ।
    कई लोग मदनमोहन की व्याख्या करते हुए कहते थे कि जिसे न मद हो न मोह, वह है मदनमोहन । इस मनीषी की महानता को नमन करते हुए महा, मना शब्द भी इनके नाम के आगे जुड़कर अपने आप के भाग्यशाली समझने लगे । गाँधीजी इन्हें नररत्न कहते थे और अपने को इनका पुजारी । माँ भारती का यह सच्चा सेवक और ज्ञान, सच्चाई का सूर्य १२ नवम्बर १९४६ को सदा के लिए अस्त हो गया ।
    इस महापुरुष, मनीषी, मंगलघट, महाधिवक्ता, महानायक, महासेवी, महादेशभक्त, महामहिम, महा मना मदनमोहन मालवीय को मेरा शत-शत नमन ।

Friday, November 14, 2014

बाल दिवस – कितना प्रासंगीक? फैसला आप करें


14 November के दिन 'नेहरू' के जन्म दिन को कांग्रेस पार्टी में नेहरु समर्थकों द्वारा 'बाल दिवस' की तरह दिया गया और तभी से बाल दिवस के दिन बच्चे किसी "महान बालक' के बजाये नेहरू का जन्मदिन मनाने में लग गये हैं। इस मौके पर हर स्कूल मे बच्चो के कई कार्यक्रम किये जाते है ओर नेहरु का गुणगान इस प्रकार किया जाता है कि भारत के सकल इतिहास मे केवल वे ही देश के सच्चे सपूत थे।

बाल दिवस पर उन महान लोगों के जन्मदिवस पर मनाया जाना चाहिए और उन बालकों को याद करना चाहिये जिन्होने देश या धर्म के लिये कुछ न कुछ अच्छा काम किया हो हमारे देश में शकुन्तला पुत्र 'भरत', 'श्री कृष्ण', 'चन्द्रगुप्त मौर्य', 'शिवाजी', 'वीर हकीकत राय' , ध्रुव , प्रहलाद, गोरा और बादल, अभिमन्यु, आरुणी , तथा 'गुरु गोबिन्द सिहं के सुपुत्रों' और इनके ही जैसे अनेक वीर बालक हुये हैं जो अपने सम्पूर्ण जीवन और बाल्यकाल के कर्मों के कारण आदर्श माने जाते हैं।

सवाल ये है कि इस नेहरु जैसे इंसान के जन्म दिवस पर बच्चो को उसके घटिया आदर्श देना कहां तक उचित है.......
और एक ये तर्क कि नेहरु को बच्चों से बहुत प्यार था इसलिए उनके जन्मदिन पर बाल दिवस मनाया जाये , पर बच्चों से किसे प्यार नही है , क्या आपको और मुझे नहीं ! हम सबको बच्चों से बहुत प्यार है तो फिर नेहरु को बच्चों से प्यार था तो क्या बड़ा काम कर दिया उन्होंने बच्चों के लिए ??? ये तर्क बहुत ही बचकाना है,

आज देश में जो आतंकवाद , संप्रदायवाद की समस्या है । कश्मीर की समस्या , राष्ट्र भाषा हिन्दी की समस्या और चीन तथा पाकिस्तान द्वारा भारत की भूमि पर अतिक्रमण की समस्या है। इन सभी समस्याओं के मुख्य उत्तरदायी जवाहर लाल नेहरू है , जिन्हें भारत सरकार चाचा नेहरू कहती है ...

नेहरु ने अपनी सत्ता के लालच में पकिस्तान बना दिया, और कश्मीर को देशद्रोहियों और आतंकवादियों के हवाले कर दिया, चीन से दोस्ती के नाम पर भारत के बहादुर सेनिको को अंतिम समय तक आगे बढ़ने से रोके रखा और इस कारण से आज तक हज़ारों वर्गकिलोमीटर भारत की ज़मीन पर चीन का कब्ज़ा है

सुरा ओर सुन्दरियो मे चूर हो कर इस व्यक्ति ने जो नये भारत की नींव डाली थी वहीं नींव आज भारत का दागदार ललाट बन चुकी है....

Thursday, April 17, 2014

अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें



इस लोकसभा चुनावों की सबसे उत्साहजनक तस्वीर यह होने जा रही है कि इस बार वोट देने वालों की संख्या अबतक की सर्वाधिक होगी। जनसंख्या वृद्धि इसका एक कारण तो है ही लेकिन मैं जिस वृद्धि की बात कर रहा हूँ वह मतदान प्रतिशत की है; जो इस बार पिछले सारे रिकार्ड तोड़ने वाला है।
अभी तक होता यह रहा है कि मतदाता सूची में जितने लोगों का नाम होता था उसमें से आधे से कुछ ही अधिक लोग वोट डालते थे, शेष या तो उस स्थान पर रहते ही नहीं थे या रहते हुए भी वोट डालना बेकार का काम समझते थे। इसका कुफल यह हुआ कि राजनीतिक दलों ने अपनी जीट के लिए पन्द्रह से बीस प्रतिशत मतदाताओं को खुश करने के आसान फॉर्मूले खोजने शुरू कर दिए। जाति और धर्म के आधार पर गोलबन्दी होने लगी, अगड़े-पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक वर्ग के लोग अपनी जातीय या सांप्रदायिक पहचान के आधार पर एकजुट होकर अपने को एक वोटबैंक के रूप में देखने लगे और प्रत्याशियों को चुनने के लिए उनकी जातीय या सांप्रदायिक पहचान को अपने मत का आधार बनाने लगे।
इसका परिणाम यह हुआ कि संकीर्ण क्षेत्रीयता और जातीयता का पोषण करने वाली पार्टियों को चुनावों में सफलता मिलने लगी और सत्ता मिलने के साथ ही एक नये प्रबुद्ध वर्ग का उदय हो गया जिसके बारे में घोटालों और भ्रष्टाचार की खबरे ज्यादा और जनहित के लिए काम करने की बातें कम सुनायी देती रहीं। हमारी चुनावी पद्धति ऐसी है कि प्रत्याशी को जीत के लिए आधे वोटों की भी जरूरत नहीं पड़ती इसलिए वह सच्चे बहुमत के बारे में सोचने की जरूरत ही नही समझता।
भारत के चुनाव आयोग ने ठीक ही अपना कर्तव्य समझा कि सच्चे अर्थों में लोकतंत्र तभी स्थापित होगा जब वास्तव में बहुमत से चुने हुए प्रतिनिधि देश की संसद और विधान सभाओं में जायें। इसके लिए एक सुविचारित रणनीति बनायी गयी है। यह एक कोशिश है देश की जनता को जगाने की, यह समझाने की कि वोट देना कितना जरूरी है। देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को यह कर्तव्यबोध कराने की कि दुनिया का तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र असफल हो जाएगा यदि देश की जनता के आलस्य और उदासीनता के कारण दोयम दर्जे के नेता देश की बागडोर सम्हालते रहेंगे।
इस अभियान की सफलता के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किये गये हैं। यह सुनिश्चित किया जाना है कि देश का संविधान जिस व्यक्ति को वोट देने का अधिकार देता है वह इस अधिकार का प्रयोग भी जरूर करे। इस अभियान को नाम दिया गया है– स्वीप; अर्थात्‌ Systematic Voters’ Education and Electoral Participation (SVEEP).
चुनाव आयोग ने यह महसूस किया कि देश की जनता को उसके मताधिकार के प्रति जागरूक करना जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी यह है कि वोट डालने की राह में आने वाली उन सभी बाधाओं को दूर किया जाय जो जागरूक वोटर को भी पोलिंग बूथ तक जाने से रोकती हैं।
देश के एक आम नागरिक को मतदाता के रूप में जो ज्ञान रखना चाहिए और वह वास्तव में जितना जानता है इन दोनो में बड़ा अन्तर है। इस अन्तर को पाटने के लिए आयोग ने गंभीर प्रयास किये हैं। मतदाता पंजीकरण कैसे होगा, फोटोयुक्त मतदाता पहचान पत्र (EPIC) कैसे बनेगा, दूसरे पहचान-पत्र क्या हो सकते है, आपका मतदान केन्द्र कहाँ है, बूथ कौन सा है, ई.वी.एम. का प्रयोग कैसे करना है, चुनाव के दिन क्या करना है और क्या नहीं करना है, प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या है, धन-बल का प्रयोग करने वालों की क्या दवा है, समाज के कमजोर और असहाय तबकों का चुनाव के दौरान भयादोहन कैसे किया जा सकता है, और इसे रोकने क्या उपाय हैं; इन सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर बताने के लिए चुनाव आयोग ने बाकायदा एक कार्य योजना बनाकर जिम्मेदार अधिकारियों की फौज इसके क्रियान्वयन के लिए लगा रखी है।
आयोग ने कम मतदान प्रतिशत के लिए मोटे तौर पर जिन कारणों की पहचान की है वे हैं- त्रुटिपूर्ण व अधूरी मतदाता सूची, शहरी वर्ग की उदासीनता, लैंगिक विभेद, युवाओं की बेपरवाही इत्यादि। इनके निवारण के लिए मतदाताओं को शिक्षित करने, जागरूक करने और चुनाव संबंधी प्रशासनिक तंत्र को दक्ष बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाये गये हैं।
मतदाता सूची में अनेक फर्जी और गैरहाजिर लोगों के नाम भरे रहते थे जिन्हें गहन समीक्षा करते हुए निकाल दिया जा रहा है, घर से बाहर रहकर रोजी-रोटी कमाने वालों या सरकारी नौकरी करने वालों का नाम गाँव की सूची से निकालकर उनके सामान्य निवास के स्थान पर जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा तो है ही, सभी बूथॊं के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध एक-एक समर्पित कर्मचारी (BLO) की नियुक्ति करके उसे जिम्मेदारी दी गयी है कि वह उस बूथ से संबंधित मुहल्लों में घर-घर जाकर वैध मतदाताओं की सूची तैयार करेगा, उनके पंजीकरण का फॉर्म भरवाएगा, जो मर चुके हैं या कहीं बाहर चले गये हैं उनका नाम सूची से हटवाएगा और वैध व सच्ची मतदाता सूची तैयार करेगा। इस प्रकार तैयार की गयी अद्यतन सूची की प्रतियाँ बूथ के नोटिस बोर्ड पर लगायी जाएंगी, मतदाताओं की चौपाल लगाकर मतदाता सूची को त्रुटिरहित बनाया जाएगा।
सभी मतदाताओं का फोटोयुक्त पहचानपत्र तैयार कराकर घर-घर ले जाकर प्राप्त कराने तक की जिम्मेदारी इस बी.एल.ओ. को दी गयी है। अपने बूथ के प्रायः सभी मतदाताओं को यह व्यक्तिगत रूप से पहचान सकेगा। मतदान के दिन से तीन-चार दिन पहले ही सभी मतदाताओं को वोटर-पर्ची बनाकर उनके घर पर दे आने का जिम्मा भी यह कर्मचारी उठाएगा। अब पार्टियों की स्टॉल लगाकर पर्ची बाँटने के काम से छुट्टी कर दी गयी है।
लाखों की संख्या में जो सरकारी कर्मचारी, पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के लोग चुनाव की ड्यूटी होने के कारण अपना वोट नहीं डाल पाते थे उनका वोट भी हर हाल में डलवाने की व्यवस्था कर ली गयी है। पोस्टल बैलेट से लेकर ड्यूटी वाले बूथ पर ही उनका वोट डलवाने के विकल्प खोले गये हैं। यह अभियान ‘पल्स पोलियो अभियान’ या ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की याद दिलाता है जिसका नारा है- “एक भी बच्चा छूटने न पाये।” चुनाव आयोग भी चाह रहा है कि “एक भी वोटर छूटने न पाये।”
चुनाव आयोग मानो कह रहा है कि हे वोटर महोदय, इतनी कृपा कीजिए कि बूथ तक पहुँचकर अपना वोट डाल दीजिए। लोकतंत्र के मंदिर में वोटर को भगवान बनाने की यह मुहीम रंग लाने वाली है। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में, बौद्धिक सेमिनारों में और गाँव-गाँव की गली-गली तक इस संदेश को पहुँचाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। यह सब देखकर बस यही कहने का मन करता है कि इसके बावजूद यदि आप अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो लानत है।ध्यान रखे कि मात्र चुनाव के दिन ही आम मतदाता और राष्ट्रपति के बीच का फर्क मिट जाता है क्यूंकि दोनों ही को एक समान एक वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है।

Wednesday, January 15, 2014

आज की राजनीति की नैतिकता और सैफई



उत्तर प्रदेश के सैफई गांव में हर साल सांस्कृतिक जलसा होता है. इस बार भी जगरमगर और धूम रही, सलमान खान और माधुरी दीक्षित ने डांस किया. मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों की तकलीफ की ओर पीठ कर सैफई का उल्लास क्या उचित था?
सैफई मुलायम सिंह का पैतृक गांव है. यादव बंधु भ्राता तात सखा ग्रामवासी सब सैफई महोत्सव में इकट्ठा होते हैं. रंग रोशनी नेता अभिनेता डांस एक्टिंग आनाजाना शोरशराबा नौटंकी धूल धमाका, सब होता है. गांव जैसे जश्न में घुल जाता है. लेकिन अब सैफई पर सीएम को सफाई देनी पड़ रही है. वो मीडिया पर भड़के हुए हैं. कुछ मुद्दों पर जायज भी भड़के. मीडिया ने अपना जो हाल बनाया है उसमें सत्ता राजनीति उसे अब जरा बढ़चढ़ कर ही आंख दिखाने लगी है.
अखिलेश ने सैफई निंदा को गरीबों और समाजवाद की निंदा से जोड़ा. आशय ये था कि ये अंग्रेजीदां लोग देहातियों के मनोरंजन पर नाक भौं सिकोड़ते हैं. ये सिर्फ मनोरंजन तो नहीं था, मेला था, संस्कृति का प्रसार था. रोजगार का साधन था, युवाओं में जोश था, आदि आदि. सही है. सैफई महोत्सव सही है, राग रंग बनता है. जनता को भी मनोरंजन चाहिए. और सोचिए उनके लिए सपने से कम नहीं, सलमान और माधुरी जैसे सितारों का ठीक उनके सामने मंच पर नाचना गाना.
लेकिन...
लेकिनका एक बड़ा सा पेड़ लहराता हुआ सैफई के समाजवाद के आड़े आ जाता है. ये मुजफ्फरनगर के सौहार्द का कटा हुआ पेड़ है. सैफई में जब मनोरंजन फूटता था तो कुछ सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में दम घुटता था. वहां लोग सितारों के नाच में लहराते थे, इधर बर्छियों की तरह चुभती ठंड में शरीर और तंबुओं से लिपटी चिंदियां फड़फड़ाती थीं.
ये एक ही सूबे के दो अलग अलग दृश्य थे. एक ही समाज की दो हलचलें, एक ही देश के दो यथार्थ. आपको देश में हर जगह एक सैफई मिलेगा, एक मुजफ्फरनगर. मुजफ्फरनगर यानी शर्म और यातना. और सैफई यानी उस वेदना के पड़ोस में एक निर्विकार मौज. सैफई 2014 में सामाजिक मूल्यहीनता का एक रिफ्लेक्शन है. लेकिन अकेला यही नहीं. त्रासदियों पर आंखें फेरने और जीवन के समारोहीकरण की ये कोई अकेली या पहली मिसाल नहीं. आखिरी क्यों कर होगी. ये देश उदास होना भूल गया है.
मुजफ्फरनगर कैंप में ठंड से जूझते परिवार
राजनीति को बॉलीवुड की मसाला फिल्म की तरह पेश करने का दौर चला है. सूबे की सरकार के प्रमुख और कई और नुमांइदे सैफई में डूबे लेकिन एक राज्य की समस्त जनता की फिक्र करने वाली सरकार के लिए क्या ये अनिवार्य डूब थी. तड़पते और कांपते मुजफ्फरनगर के पास धूम और मस्ती का अलाव क्यों जलाया. इस गर्मी को अपने पर खर्च क्यों किया.
अच्छा, थोड़ी देर के लिए मान लें कि अखिलेश एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला कर लेते, साहस दिखाते. अपने पिता को भी आगे बढ़कर कहते, देखिए इस बार सैफई नहीं करते. वहां कुछ और दूसरे ढंग का कर देते हैं. मुजफ्फरनगर की याद में, उस सघन संकट के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए कोई शिविर कर देते हैं. कुछ अलग कर देते हैं. ऐसा कि दुनिया देखती रह जाए और सबक ले सके. नाम होता. क्या अपनी जनता पर अपने कार्यकर्ता पर और अपने गांव देहात पर यादवों का इतना बस न था. क्या उन्हें कनविन्स न किया जा सकता था.
काश, ऐसा होता
क्या ऐसा हो सकता था. ये हमारी खुशफहमी ही होगी शायद. चमक की खुशफहमियां तो किसी और ही चीज के लिए उकसाती हैं. उनका मोह जबरदस्त है. धंसा तो धंसा रह गया. इस मोह से बाहर आने की ताब तो आप भी मानेंगे कि या तो बुद्ध में ही रही होगी, या गांधी में.
ऐसा क्यों है कि बुद्ध की इतनी सदियों बाद और गांधी के इतने बरसों बाद आज के भारत में, त्याग समर्पण अच्छाई और नैतिकता के बारे में हवाला देने के लिए हमें इन दो महान आत्माओं के पास ही जाना पड़ता है. और इसी हवाले से आज के नेताओं या सार्वजनिक जीवन की शख्सियतों से आप बहुत बड़ी तो नहीं, छोटी छोटी अपेक्षाएं रखते हैं. अखिलेश और उनके पिता से भी यही अपेक्षा थी. उनके उस दल से भी यही अपेक्षा थी जो विदेश के स्टडी टूरपर निकला.

ये कैसी सियासत
यूपी के मामले में सच्ची राजनीति तो यही कहती थी कि सैफई स्थगित करो. विदेश यात्रा स्थगित करो. मुजफ्फरनगर जाओ उसे समझो और संवारो. जैसे गुजरात के सीएम के मामले में राजनीति यही कहती है कि ब्लॉग लिखकर अपने दुख के घड़े का वजन और आकार न बताओ, जो 2002 में हुआ उसके लिए पहले माफी तो मांगो. सामने आओ. लगता है चाहे राजनीति हो या उससे जुड़ी समाज या संस्कृति, इन सत्ताओं का ये दौर गलतियां स्वीकारने या सुधारने का नहीं, उन्हें किसी न किसी रूप में जायज ठहराने का या उन पर खामोश रह जाने का दौर है. सत्ता राजनीति और उसके तमाम किरदार अपनी कौम की फिक्र से दूर रहते हैं. फिर वे नेता हों या अभिनेता या कलाकार या अफसर या खिलाड़ी.
सच्चे राजनैतिक और सामाजिक  मूल्यों की शिनाख्त होती है विनम्रता, सहानुभूति, सद्भावना और साहस में. लेकिन हम पाते हैं, संस्कृति में अब आत्मा के निरीक्षण की कार्रवाई ही रद्द की जा चुकी है. मानो उसका वहां क्या काम.